इस्लाम ने औरतों के हुक़ूक़ और तरक़्क़ी के लिए ख़ास अहकाम और क़वानीन बनाए हैं। एक दस्तूर जिस से इस्लाम किसी शाइस्ता ख़ातून और उस की इस्लामी तर्बीयत के आसार और नताइज को देखा जा सकता है ये है कि सदरे इस्लाम की इन ख़ातून की ज़िंदगी को कामिल तौर पर मालूम किया जाये कि जिनकी तर्बीयत वहय के मालिक ने की हो और उनकी ज़िंदगी के तमाम जुज़ईआत का दकी़क़ नज़र से मुतालिया किया जाये।
हज़रत ज़हरा- तमाम इस्लामी ख़वातीन में दर्जा अव्वल पर फ़ाइज़ हैं क्योंकि सिर्फ यही वो एक ख़ातून हैं कि जिनका बाप मासूम है और शौहर मासूम और ख़ुद भी मासूम हैं आपकी ज़िंदगी और तर्बीयत का माहौल इस्मत-ओ-तहारत का माहौल था, आप के बचपन का दौर उस ज़ात के ज़ेर-ए-साया गुज़रा जिसकी तर्बीयत बिलावास्ता परवरदिगार आलम ने की थी।
उमूर ख़ाना-दारी और बच्चों की परवरिश का ज़माना इस्लाम की दूसरी अज़ीम शख़्सियत यानी अली बिन अबी तालिब अलैहिस-सलाम के घर में गुज़ारा उसी ज़माने में आपने दो मासूम, इमाम हसन और इमाम हुसैन (दोनों पी सलाम हो ) की तर्बीयत फ़रमाई और दो जुरात मंद-ओ-शेर दिल और फ़िदाकार बेटीयों जनाब ज़ैनब और जनाब उम कुलसूम को इस्लामी मुआशरा के सिपुर्द किया।
ऐसे घर में वाज़िह तौर से अहकाम इस्लामी और तहज़ीबे इस्लामी की रिवाज का मुशाहिदा किया जा सकता है और इस में इस्लाम की पाकीज़ा और मिसाली ख़ातून को तलाश किया जा सकता है।